बुनावट
कहानियाँ लिख नहीं पाती इसलिए क़िस्से लिखने की कोशिश करती हूँ। निराशा के अनुभवों से उपजे सवालों के जवाब जब आसपास मिलें तो समझना आसान नहीं होता पर ज़रूरी होता है। अमूमन, उदासी और दर्द से घिरे इंसान से हम यही कहते हैं कि जो भी मुश्किल है उसके हल की ओर ध्यान दो। हो सके तो सुलझा लो वरना छोड़ दो। मुझे याद है मेरी मम्मी स्वेटर बुनते वक़्त उलझे ऊन को सुलझाती हैं, जब तक संभव हो धागा दर धागा सरका कर निकालती हैं लेकिन गाँठ अगर ऐसी बंध जाती कि सिवाय डोरी तोड़ने के कोई उपाय न रह जाए तो माँ दाँतों में अड़ा कर फट से उसे तोड़ देतीं और तुरंत आगे स्वेटर बुनने लगती। तब मुझे यह उनका हुनर लगता था पर अब समझती हूँ कि ये अनुभव था। जीवन की बुनावट भी मजबूती से हो इसके लिए भी कुछ गाँठो से निजात डोरी तोड़ कर ही पायी जाती है।
आसान नहीं होता कभी किसी के लिए डोरी को तोड़ना। बात सिर्फ़ इंसान की नहीं है; आसान तो आदतों, जगहों, सपनों, गलतियों, अतीत, डर, हार और भी जो कुछ इंसानी जीवन में घटता है से निजात पाना भी नहीं होता। ‘जाना’ हिंदी की सबसे ख़ौफ़नाक क्रिया है लेकिन छोड़ना,भूलना, फिर बढ़ना कमतर नहीं है। जाना तो छोर पाने जैसा है; लहर के थपेड़े तो ‘झेलना’,’छोड़ना’, ‘भूलना’, ‘समेटना’ और ‘बढ़ना’ ही है। कुदरत साक्षी है कि छोर पर हर लहर झुकती है, थमती है या कमज़ोर पड़ती है, मुश्किल तो भँवर ही होता है, इसलिए ‘जाना’ क्रिया से कमतर नहीं ठीक पहले की क्रियाएँ। कम-अज़-कम झेलने वाले के लिए तो बिल्कुल नहीं।
अगर डोर इस तरह उलझी है जो सुलझ न सके, अगर सुलझाने पर कस रही है उसकी जकड़न, घोंट रही है आपको तो यह इशारा है कि आगे बढ़िए। हल्के से डोर काट कर मुक्त हो जाइए। बेहतर की उम्मीद कभी ग़लत नहीं, बदलाव की चाह कभी झूठ नहीं हो सकती। ले देकर इंसान के पास अगर कुछ है तो वह है उम्मीद। संवैधानिक अधिकारों की दुनिया में बेहतर की कल्पना आदम ज़ात का भावनात्मक अधिकार है। हमें सीधे तौर पर ऐसा सिखाया या पढ़ाया नहीं जाता है और न तब इसकी ज़रूरत महसूस होती है पर जब जीवन के स्कूल में दाख़िल होना पड़ता है ना, तब जद्दोज़हद की हर जमात के हर सबक से हम यही सीखते हैं कि बचपन से अब तक जो पढ़ा उस सबमें कल्पनाओं ने मनस पटल पर उम्मीद की ज़मीं तैयार करने का काम ही तो किया है।
“यह कदम्ब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे” या “अगर पेड़ भी चलते होते” जैसी कविताओं ने बालमन पर ‘ठहराव में भी बदलाव’ की उम्मीद बोयी है। “किससे मन की बात कहेगी, अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी” जैसे शब्दों ने उस बुवाई पर संवेदनाएँ छिड़की हैं।
परोक्ष रूप से ही सही, मगर सारी ज़मीन तैयार की गई, बुवाई हुई, तराई हुई, बुनावट हुई, सुरक्षा हुई और परिणाम भी तैयार थे। लेकिन जब सबसे ज़्यादा ज़रूरत हुई उस उम्मीद की, बेहतरी सोचने की, क़फ़स से बाहर आने की, ख़ुद को बचा पाने की; तब क्यों उस भावनात्मक अधिकार को ख़ुद से छीन लेते हैं हम ही? दुनियादारी की आँधी को उजाड़कर ले जाने देते हैं वे उम्मीदें ?
कला ने, साहित्य ने, पढ़ाई ने,किताबों ने नौकरी ने, परिवार ने, दोस्तों ने, दुश्मनों ने, हालातों ने, मुश्किलों ने, खुशियों ने,जन्म ने, मौत ने, अच्छे बुरे हर मौके ने, एक शब्द में कहूँ तो जीवन ने हमारे लिए सबक तैयार किये हैं और सबक के बदले हमारे हिस्से उम्मीदों का प्रशस्ति पत्र रखा है। जब झेला भी और सीखा भी, तो स्वीकारने में क्यों कतराना?
भरसक कोशिश के बाद भी डोर नहीं सुलझ रही तो धीमे से डोर तोड़िए और आगे बुनना शुरू कीजिए। एक फंदा कोशिश का और दूसरा उम्मीद का डालकर फिर से बुन डालिए ‘जीवन’ को भी……मेरी नहीं सुन रहे हो तो बड़ी कलम और बड़े अनुभवों की मानो (गुलज़ार साहब) की मानो-
थोड़ा सा रफ़ू करके देखिए, फिर से नई लगेगी…………..आगे आप बताइए?
भरसक प्रयत्न किए साधने के,
हम साध्य हो गये बांधने के।
आदत हो गई अब बोझ बोझ नहीं लगता
हम काबिल हो गये हैं लादने के।।
यही जीवन है। जय करने का रास्ता भी यही है।