Poetry

मैं स्वयं समुद्र हूँ!

सीपियों की गोद में, बूँद सी सदा पली, नीर को निखारकर, एक नदी में हूँ ढ़ली, उफ़ान में हुंकार हूँ, उतार में झंकार सी, सतह पर उतरी जो मैं, कश्ती कई उबार दी, मोतियों को गर्भ के असीम अंत में रखा, तरंग के उछाल ने वितान शीर्ष भी चखा, सजा दिए, तो बस्तियों के छोर […]

Poetry

प्रेम का संसार….

बारहवाँ रस, सत्रहवाँ शृंगार होना चाहिए, अब कुछ अलग सा प्रेम का संसार होना चाहिए जो सभी ने है सुना, लिख, कह गए शायर सभी, उन कल्पनाओं से इतर, सच-द्वार होना चाहिए,l अब कुछ अलग सा प्रेम का संसार होना चाहिए छरहरा न भी ये तन हो, रूप में लावण्य कम हो, सौंदर्य के प्रतिमानों […]

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पूछ रहे हैं राम

राह न मेरी चिह्नित करते, पर के कटने तक न लड़ते, पूछ रहे हैं राम लला हम कैसे जानकी तक बढ़ते?? नहीं वानर वे आगे बढ़ते, परमारथ हित सेतु न गढ़ते, पूछ रहे हैं राम लला हम कैसे लंका में पग धरते?? बातें नीति की न करते, कर्मों में कुल लक्षण भरते, पूछ रहे हैं […]

अनुवाद (Translated Poem)

क्योंकि मैं मृत्यु के लिए नहीं रुक सकी

क्योंकि मैं मृत्यु के लिए नहीं रुक सकी परन्तु वह, मेरी प्रतीक्षा में रुका उसकी सवारी थे केवल हम और अमरता बड़ी ही सहजता से चले थे हम उसके स्वभाव में कोई हड़बड़ाहट नहीं थी मैंने भी उसकी ख़ातिर तुरन्त ही सब छोड़ दिया अपनी व्यस्तताएँ भी और इत्मिनान भी अपने सफ़र में हम स्कूली […]

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बिखराव

बीज ने, चीरा है खुद को तब कहीं अंकुर बना है मृदा ने, चीरा है खुद को तब कहीं पौधा जना है। . लौ ने, चीरा है हवा को, तब कहीं उजाला हुआ है उजाले ने, चीरा अंधेरा तब कहीं सवेरा हुआ है । . व्योम ने, चीरा है दामन तब कहीं द्युति चमचमाई द्युति […]

शजर शृंखला

शजर-6

राहों पे मिलते शजर ने कहा है, जाना यूँ तेरा, क्या अलविदा है? फिर मेरे लबों की तबस्सुम ने बोला, मौन ने मन की बातों को खोला, तेरी जड़ों से बनकर, डालों पे पली हूँ, बयारों के संग संग पत्तों सी चली हूँ, तूने ही मुझको खिलाया गुलों सा, तेरे नूर से ही बहारे हैं […]

शजर शृंखला

शजर-5

कोई वक़्त तकता, कोई पहर देखता है, मेरा दिल वो सूखा शजर देखता है है शुकराना उन बेज़ुबाँ पंछियों को, सूखी डालों का भी, रहा ख़्याल जिनको बाक़ि ये ज़माना है मशगूल ख़ुद में, कोई इधर देखता है, कोई उधर देखता है, मेरा दिल वो सूखा शजर देखता है… तकते हैं उसकी जानिब, कई लोग […]

शजर शृंखला

शजर-4

क्यों शाखें छोडकर, परिंदे सभी घर गए, करके सूनी टहनियाँ, पत्ते भी सारे झर गए, ये बयार, ये बहार, चंद पल को साथ थीं, बस जड़ों के उलझाव थे, जो दुखों को हर गए, पूछा न उस शजर से, बढकर कभी किसी ने, उस डाल के परिंदों के, बोलो कहाँ पर गए, जिसने जड़ें थीं […]

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