समीक्षा (Book Review)

BECOMING (बिकमिंग)

जब मैंने इस किताब को पढ़ना शुरू किया तब मेरे ज़हन में यह तय था कि मैं दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति की भूतपूर्व प्रथम महिला के लिखे संस्मरण को पढ़ने जा रही हूँ। कुछ एक पन्नों के पढ़ लिए जाने के बाद ही मुझे ये एक ऐसी सामान्य लड़की के बयान लगने लगे जो लगभग हममें से सभी हैं। आप, मैं और हर लड़की। किताब के हर भाग को एक ख़ूबसूरत शीर्षक दिया गया है – ‘मैं’, ‘हम दो’, ‘फिर उस से ज़्यादा’ साथ ही ‘आभार’।

एक मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मी मिशेल ने वही सामान्य जीवन जिया लेकिन पाने की लगन असामान्य रखी। बहुत छोटी-छोटी इच्छाएँ भी शिद्दत से पूरी की। बेबाक मिज़ाज और दिलेरी उन्हें अपनी माँ से विरासत में मिली। वो लिखती हैं कि माँ ने उन्हें एक विस्तृत आसमां दिया लेकिन ज़मीं से पैरों की दूरी न बढ़े इस बात का भी ख़्याल रखा।

अपने बचपन और लड़कपन के अल्हड़पन को बेहद ईमानदारी से उन्होंने लिखा है। वो कहती हैं ‘मैं बचपन से ही महत्वकांक्षी थी, लेकिन ठीक तरह से नहीं जानती थी कि मुझे क्या चाहिए।’ ‘ अब मुझे लगता है कि बच्चों से पूछा जाने वाला यह सबसे बेकार सवाल है।’ बढ़ने को या बड़े होने को किसी सीमा में न बाँधना ही हमेशा बढ़ते रहने का रास्ता देता है। हो सकता है यही कारण है कि मिशेल ने इस किताब का नाम ‘बिकमिंग’ रखा हो, जो आगे भी बनने और बढ़ने को बताता है। बचपन के संघर्ष, किशोरावस्था के प्रेम प्रसंग और बराक से मिलने के बाद दो अलग स्वभाव के होने पर भी एक सहज साम्य स्थापित करने का मिशेल का अंदाज़ बेहद अनोखा रहा।

वे बराक की कई ख़ूबियों का ज़िक्र एक स्वाभिमानी व्यक्तिव के तौर पर करती हैं । एक जगह वे लिखती हैं ‘ एक दिन आधी रात बराक को जगे हुए तथा अकेला देखकर मैंने पूछा कि यहाँ क्या कर रहे हो, तो बराक ने जवाब दिया- इस दुनिया से ये असमानता कब मिटेगी। बस यही।’ यह प्रसंग मिशेल, बराक और पाठक के अंदर कई प्रश्न कुलबुलाते छोड़ जाने में समर्थ रहा।

मिशेल ने एक सुरक्षित बचपन जिया लेकिन ऐसा नहीं था कि सब बहुत अच्छा रहा हो। बचपन में गोरों के बीच खुद को असहज पाना लेकिन ‘फिट इन’ होने की ज़िद में कमी न आने देने वाली मिशेल लिखती हैं कि नस्लीय भेदभाव और हीन महसूस कराने के वाक़ये आस-पड़ोस से होते हुए स्कूल, कॉलेज और नौकरी तक ही सीमित नहीं रहे…ये इतने बढ़े की ‘वाइट हाउस’ तक इनकी छाया और छाप गयी। ख़ैर, निपट लेनेऔर काम से ऐसे तानों को मुँह चिढ़ाने वाली मिशेल का तौर आप किताब पढ़कर जान जाएंगे।
बचपन में गोरों की बहुलता वाले विद्यालय में सबसे पहले उत्तर देने के लिए खुद को तैयार करने की चाह पालने वाली वह लड़की, हारवर्ड लॉ स्कूल की स्नातक बनीं। शिकागो मेयर ऑफिस, शिकागो विश्वविद्यालय और शिकागो मेडिकल सेंटर में कार्य करने से लेकर ‘पब्लिक एलाइज’ शिकागो शाखा नामक संस्था की स्थापना तक मिशेल ने सामान्य रहते हुए सशक्त बनने का उदाहरण दिया है। एक महत्वकांक्षी बच्ची से लेकर, ज़िद्दी और बेबाक़ लड़की तक। एक जुझारू महिला से लेकर, एक साथी, पत्नी और माँ होने के पलों को मिशेल ने हर सामान्य महिला की तरह जिया है, साबित किया है। अमेरिकी प्रथम महिला होने के बावजूद उनके इस किरदार के आगे उनके उस सामान्य बने रहने वाले किरदार का कद पूरी किताब में कहीं बौना नहीं नज़र आया। यह इस संस्मरणात्मक जीवन सफ़र की ईमानदारी और लेखन की ख़ासियत रही।

मैं अनुवाद पढ़ना पसंद करती हूँ। ये किताब मैंने इसकी मूल भाषा (अंग्रेज़ी) में ऑडियो बुक के ज़रिए सुनी। अनुवाद की ज़मीं पर लाकर देखूँ तो मुझे स्रोत भाषा में बयाँ किए भावों का अनुवाद उतनी ही ख़ूबसूरती से होता हुआ मुझे नहीं लगा। कुछ एक प्रसंग कोरे शब्दानुवाद थे जो मूल विषयवस्तु के साथ न्याय करते से नहीं लगे।
बाक़ी, पढ़ी जा सा सकने वाली किताब है। ज़रूर पढ़िए…😊

लेखिका : मिशेल ओबामा
अनुवादक: रोहिणी कुमारी
प्रकाशक: हिंदी पॉकेट बुक्स

– Nikki Mahar I Writeside

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