Poetry

मैं स्वयं समुद्र हूँ!

सीपियों की गोद में,
बूँद सी सदा पली,
नीर को निखारकर,
एक नदी में हूँ ढ़ली,
उफ़ान में हुंकार हूँ,
उतार में झंकार सी,
सतह पर उतरी जो मैं,
कश्ती कई उबार दी,
मोतियों को गर्भ के
असीम अंत में रखा,
तरंग के उछाल ने
वितान शीर्ष भी चखा,
सजा दिए, तो बस्तियों के
छोर तक सजा दिए,
सजा दी, तो हस्तियों के
हर निशां मिटा दिए,
आपदा की धार हूँ
मैं मंथन आधार हूँ,
तारने, सँवारने का
सम्मिलित मन्त्र हूँ
आस्था, विश्वास का
प्राणदायी तंत्र हूँ,
प्यास,नाद, योग्यता का
एकमात्र अर्थ हूँ,
धार से मझधार तक,
प्राण, स्वर समर्थ हूँ
.
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थाह के पैमाने पर,
मैं स्वयं समुद्र हूँ।
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थाह के पैमाने पर,
मैं ही स्वयं समुद्र हूँ!!

-Nikki Mahar | Writeside

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