इंतज़ार…
दुनिया में क्रियाओं की भरमार है। इसी ढ़ेर में एक क्रिया है ‘इंतज़ार’। अक्सर इंतज़ार के साथ ‘मुंतज़िर’ शब्द का साथ ख़ुशी देता है। अमूमन ऐसा सभी के साथ होता है, मेरे साथ भी होता था। मुझे भी इंतज़ार करना पसंद नहीं था; कारण थे अनुभव; सभी की तरह। ऐसे अनुभव जिनमें इंतज़ार करते-करते आस ने दम तोड़ दिया, पर इंतज़ार ने नहीं। वो जारी रहा कभी न ख़त्म होने के लिए।
लेकिन ज़िंदगी के पास जब आपको किसी से प्रेम करवाने के सलीके होते हैं तो आप चाहकर भी नफ़रत का हाथ थामे नहीं रह सकते। मेरी शिकायतों की एवज में ज़िंदगी ने मुझे इंतज़ार के करीब ला दिया। वो कहते हैं न कोई भी डर तभी तक डराता है, जब तक उसका सामना न हो जाए। एक दौर ऐसा भी आया कि मुझे इंतज़ार ख़ुशी देने लगा। हाँ, एक हल्का सा डर ज़रूर रहता था तब भी लेकिन मैंने इंतज़ार के हर दौर को इतनी बारीकी से जिया है कि उसका हर ढंग मुझे रास आने लगा है।
दिखने के सुकून भर से लेकर कुर्सी के उस पार खाली न रहने की खुशी तक, इंतज़ार ने अपनी ही तरह से मुझे संभाला है। जिस इंतज़ार में ये भरोसा होता था कि देर सबेर ही सही उस पार की कुर्सी पर रखी चाय या कॉफी इस पार वाले कप के साथ ही ख़त्म होगी…ऐसे इंतज़ार ने मुझे हमेशा उम्मीदें बख़्शी हैं। उस ओर के देरी से भरने की खीझ होने पर इंतज़ार ने मुझे मोह और लगाव के मायने समझाएँ हैं। जब उस पार की कुर्सी नाराज़गी, उलझन या मसरूफ़ियत के चलते खाली रही ना, तब भी तसल्ली ने मेरा हाथ नहीं छोड़ा और तब, इंतज़ार ने मुझे ‘एतबार’ सिखाया।
कभी यूँ भी हुआ कि ज़मीनी दूरियाँ बढ़ी और चाय के कप का खाली होना साथ नहीं हुआ और यूँ भी हुआ कि आमने-सामने लगी किसी कैफ़े की कुर्सी पर चाय या कॉफ़ी पीना ख़ुद-ब-ख़ुद कम हो गया। पर तब भी ‘कम ही हुआ’ ‘ख़त्म’ नहीं हुआ। हर उस लम्हे में इंतज़ार ने मुझे समझाया कि ‘ज़ेहनी नज़दीकियाँ’ बेअसर नहीं होती, और ज़मीनी दूरियों से ज़ेहनी नज़दीकियाँ नहीं खोती।
रोज़ाना वाले साथ जब कभी कभी में बदल जाएँ ना, तो उनके एहसासात की ईमानदारी को आँकने का तरीका यही है कि ‘इंतज़ार के साथ जब भी मुंतज़िर जुड़े’ तो आप जी सकें ‘रोज़ाना वाले साथ’ जैसे ही ख़ुशनुमा और खिलखिलाते लम्हें बिना किसी झिझक और अजनबीपन की दस्तक के। जिस पल आप ऐसा कर पाएंगे, ठीक उसी पल ‘इंतज़ार’ अपने होने का सबसे ज़हीन पाठ आपको सिखाएगा कि ‘न होने’ से कहीं बेहतर है, ‘दूर होना’….
क्योंकि ‘न होने’ में खो जाता है, इंतज़ार के इस छोर पर खड़े इंसान से दूसरे छोर का रेशा। जबकि, ‘दूर होने’ में बनी रहती है उम्मीद कि एक रोज़ इंतज़ार के इस छोर से ज़रूर बंधेगा उस छोर का ‘मुंतज़िर’ । ताकि ‘इंतज़ार’ फिर से सिखा सके किसी टूटते और रिक्त होते मन को ख़ुशी, उम्मीद,लगाव,एतबार और ज़ेहनी नज़दीकियों के मायने तरतीब से और बरक़रार रख सके उसमें झिलमिलाती आस की लौ……..
यही लौ दिखाती है वह रास्ता, जिसपर चलकर हमारा मन सीखता है कि ‘इंजतार’ सालता नहीं, ढ़ालता है हमें …..ख़ुद में बचे रहने के लिए।