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संवेदनाओं का आचरण

कभी-कभी सोचती हूँ, कहाँ जाते होंगे वे लोग जो जीत नहीं पाते या दुनिया की तरह कहूँ कि जो हार जाते हैं। कितना फ़र्क़ है इन दो बातों में भी। किसी से यह कहना कि ‘तुम जीत नहीं पाए’ और यह कहना कि ‘तुम हार गए हो’। कितना फ़र्क़ लगता है मन की ज़मीन पर उतरकर इन दोनों कथनों में। एक में फिर समेट लेने वाला संबल है तो दूसरे में मन छिल देने वाला सच। नीयत का इतना बड़ा फ़र्क़ शायद ऐसे ही शब्दों से झलकता है।
भाषा की दुनिया में कितना कुछ कहा,सुना, लिखा और पढा गया है। फिर भी कितने ही लोग हैं ना, जिन्हें ये समझना अभी बाक़ी है कि आप जो बोल रहे हैं उसमें व्याकरण भले सही है, पर आचरण ग़लत है। आप कह तो सच रहे हैं, पर संवेदना से बच रहे हैं। शब्दों का कोरा ज्ञान आपको विद्वान तो साबित कर सकता है , पर ‘निरा इंसान’ बनने के लिए यह काफ़ी कहाँ हैं।
ऐसे सलीक़े जीवन में कितने ज़रुरी हैं इसका भान होते-होते उम्र का बड़ा पड़ाव बीते न बीते, भावनाओं का एक बड़ा पड़ाव बीत चुका होता है। किसी के कुछ कहने से हालात में फ़र्क़ पड़ना बंद भले हो जाए पर मन पर उसकी तासीर अलग छाप छोड़ती है। शायद ग़ालिब ने भी ऐसा ही महसूसकर लिखा था ये मिसरा-
“उनके देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक…..”
सारी बात अटक जाती है ‘महसूस करने पर’। वक़्त कम, अना ज़्यादा, मुश्किलों और ज़िदों का उलझता धागा; झीना करने लगता है तरतीब से बुना वह मरासिम, जो आपके लिए चादर का काम करता था। ऐसी चादर जिसकी बुनावट आपको जीवन के थपेड़ों से भले बचा न सकी हो पर ख़ुद में लपेटे तो रही। जिसमें सिमटकर आप रो तो सके थे। उसका एक किनारा उधड़ता है और हम खींचते चले जाते हैं उसे कभी शब्दों के धारदार चाकू से तो कभी नुकीले मौन से। ऐसे ही किसी उधड़ते मरासिम के दर्द को सहते गुलज़ार साहब की कलम से अनायास ही फूट पड़ा होगा न यह-
“मुझको भी तरक़ीब सिखा कोई यार जुलाहे”
 
कोई भी साहित्य हर उम्र में आपको नया जान पड़ेगा क्योंकि लिखा हुआ अनुभव किसी का भी हो पर हमारी समझ और अनुभव हमें उससे जोड़ते हैं। साहित्यिक भाषा में जिसे साधारणीकरण कहा जाता है, उसे महसूसने में इंसानी मन कितना जटिल हो सकता है, ये बात जीवन आपको एक बार ज़रूर समझाता है और उस दौर में अगर आपके पास वो चादर नहीं है, वो शब्द नहीं हैं, वो सलीक़ा नहीं है और महसूसने का वो तौर नहीं है….तो उम्मीद हाथों से फ़िसल जाती है। जब इब्ने इंशा ने कहा होगा-
“हम घूम चुके बस्ती बन में, इक आस की फाँस लिए मन में…”
तब उम्मीद का सिरा ही था जिसने अंततः यह कहलवा ही दिया-
“तुम एक मुझे बहुतेरी हो, इक बार कहो, तुम मेरी हो।”
पर कहाँ?
 
पर कहाँ, किताबी दुनिया शायद इसीलिए किताबी है जिससे कि हम अपनी सहूलियत, अपने अनुभव और अपने मन के सुक़ून के हिसाब से उसे समझें और साहित्य को, सुख़न को मरहम बना लें। सुख़न मात्र ज़रिया है, सच्चाई नहीं। यह बात तब समझ आती है जब आप गिनने बैठो कि कितने हैं जिन्हें दोस्त कह सकते हो, साथी कह सकते हो। तब हालात,समझ, उम्र, दुःख, दौर या कुछ और आपको जवाब में कहें ‘सिफ़र’।
अहमद फ़राज़ ने यही सोचकर तो लिखा होगा न यह मिसरा-
“तुम तकल्लुफ़ को भी इख़्लास समझते हो ‘फ़राज़’
दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला”
 
इसी इख़्लास से जब बाहर निकालती है ज़िंदगी तब होता है-मोहभंग। मोहभंग सजीव मनुष्यों से और सुक़ून मिलता है जड़ वस्तुओं से। किसी को कलम में, तूलिका में,किताबों में, मशीनों में या कुछ भी जो आप कर रहे हैं ठीक इस समय।
 
मैं आज भी नहीं जानती कि हारे हुए लोग कहाँ जाते हैं। मगर न जीते लोग लौटते हैं कोशिशों के पास, ख़ुद के पास, ताक़ि लौटा सकें जवाब हर उस बदसलीक़ेदार इंसान को जिसे फ़र्क़ नहीं पता था ‘न जीतने’ और ‘हारा हुआ’ कहने में।
आपके शब्द किसी का संबल, किसी की खुशी, किसी की प्रेरणा और मुमकिन है कि जीने का सहारा हो सकते हैं। एक ऐसा उम्मीद द्वार हो सकते हैं जिससे बहुत दूर बैठे इंसान को किसी के होने का एहसास करवा सकें। हो सके अगर तो पूरी दुनिया में किसी एक के लिए ऐसा हर एक को बन जाना चाहिए।
भाषा का व्याकरण पढ़ते समय, संवेदनाओं का आचरण भी सीखिएगा। दुनिया ख़ूबसूरत होने के साथ, एहसास ख़ूबसीरत होना बेहद ज़रूरी है। निरा और कोरा को ‘पूरा’ से बदलने का यही एक ज़रिया रह गया है।
-Nikki Mahar

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