लैंडमार्क
“अरे यार! कोई लैंडमार्क तो बताओ ना। मैं आसपास ही हूँ गूगल मैप के हिसाब से”- राज ने झल्लाते हुए फ़ोन पर कहा। “इतना चिढ़ कर आना है तो आने का क्या फायदा है”- फ़ोन के दूसरी तरफ़ मौजूद निधि ने रूठे हुए स्वर में जवाब दिया। भनभनाते हुए बोली – “ITC, बंगाल है लैंडमार्क। 25 दिन से 50 बार बता चुकी थी तुम्हें” कहकर ठक से फ़ोन रख दिया।
राज को इस तरह रखे फ़ोन से कुछ ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ा क्योंकि वह जानता था मिलने पर मान ही जाएगी। फ़िलहाल तो उसे परवाह थी कलकत्ते की गलियों में भटक न जाने की और बस, ट्राम, रेलगाड़ी की जद्दोजहद से जूझ कर उस एक जगह पहुँच पाने की, जहाँ उसे निधि ने आने को कहा था। राज इस शहर में पहली बार आया था। सियालदाह रेलवे स्टेशन से अपनी मंज़िल की ओर जाने में वह कई बार झल्ला चुका था-” क्या शहर है यार ये! बसों में इतनी ठेलमठेल है, ऑटो अपनी परिधि से आगे नहीं जाते, येलो टेक्सी वाले मनमाने पैसे माँगते हैं। इस चिपचिपी गर्मी से जो जान निकल रही है, सो अलग तरह का कहर है।” उत्तराखंड के छोटे से भाग धनौल्टी से आया राज न गर्मी सहन कर पा रहा था और न मेट्रो शहरों का हर तरफ़ खचाखच भरा तौर। खीझते हुए ही सही पर जब तक वह बताए स्थान पर पहुँचा और निधि को फ़ोन किया तो निधि ने बताया वह 2 घंटे पहले वहाँ से जा चुकी है। देरी की भी सीमा होती है। मैं भी तो आसनसोल से यहाँ तक सिर्फ़ तुमसे मिलने आई थी कितना इंतज़ार करती ? मुझे फ्लाइट पकड़नी थी आज ही दिल्ली निकलना है। सोचा जाने से पहले मिल जाऊँ इसलिए इतनी दूर आई। ख़ैर, अब वापसी में मिलूँगी। ऑफ़िस के प्रोजेक्ट के कारण पंद्रह दिनों के लिए दिल्ली में ट्रेनिंग है और अगर सब सही रहा मैं सलेक्ट हो गई तो 2 साल के लिए लंदन ब्रांच में पोस्टिंग होने का पूरा-पूरा चांस है। जब वापस लौटूँगी तो मिलूँगी और अगली बार 3 घंटे का बैकअप टाइम लेकर आना। तुम तो क्या ही लाओगे, मैं ही तुम्हें अपने आने से तीन चार घण्टे पहले का टाइम बताऊँगी। लेट लतीफ़ हमेशा की तरह। इतना कहकर हँसते हुए निधि ने फोन रख दिया।
राज फिर झुंझलाहट से भर गया और सोचने लगा जब जाने लगी थी तो फोन ही कर देती तो मैं रास्ते से ही लौट जाता। इतनी दूर बेवज़ह आकर जा रहा हूँ अब। यही सोचते सोचते वह कुछ दूर तक चला और एक स्टैंड से सियालदाह की तरफ़ जाती बस में अनमना सा होकर बैठ गया। बस के शोर में भी उसके अंदर एक अलग तरह का सन्नाटा था जिसमें कई सवाल गूँज रहे थे। ‘निधि, कैसे इतनी शांत हर समय रह लेती है? दो घण्टे से भी ज़्यादा उसने भी इतंज़ार किया होगा पर जैसे मैं झल्लाया वैसे तो वो फोन पर नहीं बोली। मेरे सब्र की परिधि कम हो चुकी है या उसके सब्र की सीमा अंतहीन है? उसने बताया तो मुझे वाक़ई पिछले एक महीने में हर रोज़ था- कहाँ, कब और कितने बजे आना है। मैंने तब भी उसे झल्लाते हुए कहा था कि गाना ही बना देती हो हर एक बात का। मुस्कुराई थी तब भी पर बोली कुछ नहीं। क्या बुरा लगा होगा? उसके उत्साह पर क्या ये बात एक कटाक्ष बन कर बैठी होगी? पर क्यों? क्या वो मेरा स्वभाव नहीं जानती? कठोर हूँ, पर बाहर से। दिल से कुछ नहीं कहता।
पर… क्या मैं उसका स्वभाव जानता हूँ? हर बात पर चहक उठने वाली वो लड़की। दूसरे दशक के नवें पायदान पर होने के बावजूद छरहरे, अल्हड़ बच्चे जैसा स्वभाव है। क्या कभी मेरे रवैये ने इसकी परवाह की है? जवाब देने वाला कोई न था पर राज का मन स्वतः ही झेंप गया। जैसे जानता हो कि क्या ग़लत किया है पर स्वीकारने में दम्भ आड़े आता हो। फिर भी कुछ था जो चिल्ला कर कह रहा हो उससे कि ‘दिल से कुछ नहीं कहते हो, पर ज़रूरी है शब्दों से ऐसा कह देना जो सहनीय न हो? ज़रूरी है कि हर किसी को सिर्फ़ नीयत से फ़र्क़ पड़ता हो? किसी को नीयत और फ़ितरत दोनों बराबर प्यारी हो तो ये उसकी ग़लती बना दोगे क्या? भावना प्यारी हैं तो सम्मान होता है पर भावनाओं का चेहरा हैं शब्द, उसकी रूह है सलीक़ा। कैसे करेगा नज़रंदाज़ ये सब कोई ऐसा इंसान जो दूसरे दशक के नौवें पायदान पर भी एक छरहरे, अल्हड़ बच्चे का सा कोमल मन रखता हो?? और क्यों करे भला ये तो बताओ?
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बस की ब्रेक अचानक लगने से सन्तुलन खोते सभी यात्रियों की जमात में शामिल राज को भी एक ज़ोरदार झटका लगा तो याद आया कि दो साल 8 महीने 40 दिन पहले उधड़ चुके एक रिश्ते के सवाल उसके मन को हर बार की तरह कलकत्ता की सड़कों पर यात्रा करते घेरे हुए थे। आज हमेशा के लिए कलकत्ता से विदा लेते हुए वह एयरपोर्ट जाने से पहले रास्ते में ठीक उसी जगह उतरा। क्या पता था, ‘मंज़िल के क़रीब’ पहुँचाने को बनी वह जगह, ‘यादों के क़रीब’ लाने वाले लैंडमार्क में तब्दील हो जाएगी।
© Nikki Mahar | Write side
Location: ITC, Bengal (Kolkata)