Poetry

चाराग़र

साथी सुनो, इंसां हूँ मैं,
तुमसा ही हूँ, जुदा नहीं
मुझको न तुम लक़ाब दो,
मैं कोई ख़ुदा नहीं,
जो भी कर रहा हूँ मैं,
मेरा महज़ वो कर्म है,
दवा में घोल कर दुआ,
जीवन बाँटना ही धर्म है,
ये है हुनर को आस से
बाँधने की बंदगी,
थाम करके नब्ज़ को
टटोलता हूँ ज़िंदगी,
जब साया वबा का छा गया,
हर शख्स था  घबरा गया,
मैं चाराग़र था इसलिए,
अरसों तलक घर न गया,
सनसनी ख़बरों से तुम,
घर बैठे घबराते रहे,
हम आँकड़ों से खींच कर
इंसान बचाते रहे,
अपनों की थमती नब्ज़ पर,
सबके बहे आँसू मगर,
भीतर से कुम्हलाके भी
हम फ़र्ज़ निभाते रहे,
थूका गया हमपर,
हमीं गरियाये भी गए,
पत्थर भी मेरे फ़र्ज़ पर,
सरेआम बरसाए गए,
लेकिन उम्मीदी डोर का,
हम छोर बचाए रहे,
एक ओर सियासी रंज सहे,
जगभर के हमने तंज सहे,
लेकिन कर्मों से भटके न,
राह-ए-फ़र्ज़ पर डटे रहे,
क्यों झोंकी थी जवानी पढ़ने में?
क्यों जीवन त्यागा है गुणने में?
बने ढाल मर्ज़ से लड़ने को,
क्या यही जफ़ाएँ सहने को?
अपने न मेरे सोते हैं,
याद मुझे कर रोते हैं,
मुझको भी ख़ौफ़ वबा का था,
न फ़र्ज़ से लेकिन तनिक डिगा,
पत्थर, गाली और मार सही
पर, कर्म शपथ की लाज रखी,
जब लाशों के ढ़ेर से रूह डरी,
मेरे हाथों लौटी साँसों ने आस भरी,
अपने खोये थे हमने भी,
दुःख तुमसा था,पर कहा नहीं,
है कर्म मेरा, एहसान नहीं,
पर इंसान हूँ मैं, भगवान नहीं,
सुन लो मेरे अपने लोगों,
इंसा जानो, इंसा मानो,
अब बस इतना ही कहना है,
कोशिश का दारोमदार हूँ मैं,
साँसों का पहरेदार हूँ मैं,
तुमसा ही हूँ , कुछ जुदा नहीं
इंसां हूँ मैं, कोई ख़ुदा नहीं।
-Nikki Mahar

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