जीवनशास्त्र….
व्यंजना के आदि पथ में,
लक्षणा से इस जगत में,
सर्वदा मैं एक अभिधा,
सी सरीखी रह गयी।
न मिले उपमान जब
तो कल्पना में शब्द गूँथे,
भाव सारे कल्पना के,
घोल रस में कह गयी।
सर्वदा मैं एक अभिधा,
सी सरीखी रह गयी।
था खोज में प्रसाद शामिल,
निज में मधुरिम से गयी मिल,
फिर हुआ कि ओज सारा,
सब स्वयं में सह गयी।
सर्वदा मैं एक अभिधा,
सी सरीखी रह गयी।
शब्द ने जब भी सँवारे
भाव के अलंकार सारे,
तब छलककर ज्यों की त्यों
मैं काव्य बनकर बह गयी।
सर्वदा मैं एक अभिधा,
सी सरीखी रह गयी।
गीत में न ढल सकी,
न मुक्त होकर पल सकी,
गणना भी मन के छंद की,
नगण्य होकर रह गयी
सर्वदा मैं एक अभिधा,
सी सरीखी रह गयी।
-Nikki Mahar