मैं फिर भी उड़ूँगी!
तुम कर सकते हो मुझे इतिहास में दर्ज़
अपने कडवे, मनगढ़ंत झूठ के साथ
तुम मिला सकते हो मुझे धूल में
फिर भी, उसी धूल की तरह, मैं उड़ूँगी।
क्या मेरी जीवंतता तुम्हें उदास करती है?
तुम क्यों इतनी घोर निराशा से भरे जाते हो?
इसलिए कि मैं ऐसे जीती हूँ जैसे हूँ
तमाम अभावों से परे।
जैसे तय है चाँद और सूरज का आना
निश्चित होता है किसी ज्वार का उफ़ान
जैसे उम्मीदों को मिलती है उड़ान
वैसे ही, मैं उड़ूँगी!
क्या तुम मुझे बिखरा देखना चाहते थे?
मेरा नीचा सर और झुकी आँखें?
आंसुओं की भांति ढलकते कंधे
जो कमज़ोर हो चुके हों मेरी आत्मा के रुदन से?
क्या मेरा स्वाभिमान तुम्हें अपमानित करता है?
क्यों तुम इसे बेहद जटिल पाते हो
सिर्फ़ इसलिए कि मैं ऐसे खिलखिलाकर हँसती हूँ
जैसे पायी हों सोने की खाने
अपने ही आँगन के पिछली ओर
तुम अपने शब्दों से मुझे भेद सकते हो,
तुम अपनी नज़रों से मुझे चीर सकते हो,
तुम मार सकते हो मुझे अपनी नफ़रत से
फिर भी, इस हवा की तरह, मैं उड़ूँगी!
क्या मेरी मोहकता तुम्हें उदास करती है?
क्या ये बात तुम्हें हैरान करती है कि
मैं कैसे ऐसी मादकता के साथ थिरकती हूँ
जैसे मेरी ही जंघाओं के मध्य हो कई हीरे
इतिहास के शर्मनाक किस्सों से इतर
मैं उठूँगी!
अतीत की जड़ों में भरे दर्द से परे
मैं उड़ूँगी
मैं गहराता काला सागर हूँ, उफ़नता और फैला हुआ,
गिरते पड़ते ज्वार के थपेड़ों को झेलता
आतंक और भय की रातों को पीछे छोड़ते हुए
मैं बढ़ूँगी
एक अंतराल के बाद मिले ऐसे दिन की चाह में
मैं बढ़ूँगी
पुरखों से मिली धरोहर को साथ लेकर
मैं बंधुवा समुदाय के ख़्वाब और आस गढ़ूँगी
मैं कहूँगी!
मैं उड़ूँगी!
मैं लड़ूँगी!
.
.
.
इस सबके बावजूद भी
मैं बढ़ूँगी!
_______________________________________________________________________________________________________________
Poem: Still I rise
Written by : Maya Angelou
Translated by: Nikki Mahar (Writeside)
Picture: Pinterest
_______________________________________________________________________________________________________________