सार….
समर्पण बना ‘मीरा’,
प्रेम को राधा किया,
क़द्र ‘रूखमणी’ की; फिर भी कर न सका है ।1।
अहसास ‘वृंदावन’ रहे,
उम्मीद ‘द्वारिका’ हुई,
पीड़ा ‘बरसाने’ की; फिर भी हर न सका है ।2।
कोख़ पावन ‘देवकी’ बनी,
परवरिश ‘यशोदा’ हुई,
वत्सल विरह ‘घाव’; फिर भी भर न सका है ।3।
बोध श्रेष्ठ ‘श्लोक’ थे,
ज्ञान शुचि ‘गीता’ हुई,
हृदय में वह सार ‘नर’; फिर भी धर न सका है ।4।
-Nikki Mahar I Writeside
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