शजर शृंखला

शजर-5

कोई वक़्त तकता, कोई पहर देखता है,
मेरा दिल वो सूखा शजर देखता है
है शुकराना उन बेज़ुबाँ पंछियों को,
सूखी डालों का भी, रहा ख़्याल जिनको
बाक़ि ये ज़माना है मशगूल ख़ुद में,
कोई इधर देखता है, कोई उधर देखता है,
मेरा दिल वो सूखा शजर देखता है…

तकते हैं उसकी जानिब, कई लोग यूँ तो,
कहा क्या किसी ने, ‘खड़ा संग हूँ तो’ ?
छू रहे थे गगन को, भरे पूरे साथी,
नज़र आई किसी को, क्या उसकी उदासी?
वो कमज़ोर ज़िन्दगी की, मानिंद लगे है,
हर एक गुज़रता, हशर (हश्र) देखता है
मेरा दिल वो सूखा शजर देखता है। .

© Nikki Mahar | Writeside

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