शजर-3
किसी शजर की जड़ का पानी,
और आदम की साँस रवानी,
ख़ुद पर बीती, तब ये जाना
अलग नहीं दोनों के मानी ।
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जैसे गिरे शजर की शाखें,
तेज़ धार तलवारों से,
वैसे लफ्ज़ गिरें मौन में
रूखे रुसवा व्यवहारों से।
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जैसे डाल के पत्ते झरते,
बीत चुकी बहारों से,
वैसे अक्सर मन भी मरते,
झूठे सभी सहारों से।
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जैसे शोख़ गुलों ने छोड़ा,
खिल खिल कर डालों पर बढ़ना,
मुस्कानों ने यूँ लब छोड़े,
नफ़रत भरी कटारों से।
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जैसे माटी दरक पड़े तो,
जड़ सारी हिल जाती हैं,
शाख झिंझोडों
कलियाँ सारी मिट्टी में मिल जाती हैं,
मन की कश्ती उबर गई है,
अनजानी मझधारों से,
लेकिन खौफ़ अभी भी बाक़ी
परिचित सभी किनारों से……..
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© Nikki Mahar I Writeside
Place: Lodhi garden, Delhi