शजर शृंखला

शजर-2

वक़्त गुज़रा ज़िंदगी चली
बेबसी के आगे उम्मीदें ढली
आँसू झर गए, शब्द मर गए
रंग भी उड़ा, रौनक गई
शाखों ने दिशा चुन ली नई
झिंझड गए, सिहर गए
फ़ीकी पड़ी हरियाली जब
सूखकर, बिखर गए,
बढ़ने से पर रुके नहीं
टूटे  थे पर झुके नहीं,
जब परिधियाँ ईंट की,
दीवार बन घेरे रहीं
तब ज़मी के नीचे पले
आसमां की जानिब चले
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लहजे नर्म ही रखते हैं वो
हालात जिनके सख़्त हो
यूँ बिखरकर निखर रहे हो,
शायद, फ़ितरतन दरख़्त हो…
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तुम फ़ितरतन दरख़्त हो।

© Nikki Mahar  | Writeside

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