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काँच में आईना

कहने वालों ने बहुत कुछ कहा, पढ़ने वालों ने तरह तरह के तर्क पाए। महसूसने की उस बात को अनगिनत तरीकों से गद्य में पढ़ा गया। हर बार निराली ही तर्ज़ पर कविताओं में गढ़ा गया। याद है ना? एक कवि ने सबसे बुरा ‘जाने की क्रिया को बताया’ तो दूसरे ने ‘ हमारे सपनों के मर जाने को’।

इसे पढ़ने वाला हर इंसान अगर अपनी आँखे बंद करे तो वो अपने हिसाब से सबसे बुरे अनुभव को आसानी से याद कर पाएगा। उस वक़्त किताबों की बातें नहीं याद रहती, न ही किसी कवि का जुमला ज़हन में चढ़ता है। याद आता है तो बस वो जो ज़िंदगी ने आपके लिए परोसा। वो जो सबसे करीब से गुज़रा दर्द अपने जिया था न, बस वही याद आएगा। मेरा दावा है कि ऐसे सबके साथ होता होगा। हाँ, बयां करना या नहीं करना एक निजी मस’अला हो सकता है। लेकिन वो जो आप उस लम्हें में याद करते हैं, उस एक लम्हें में आप अपने लिए जितने ईमानदार हो पाते हैं,जितने संवेदनशील हो पाते हैं, उतने फिर कभी किसी के लिए नहीं हो पाते। अपने लिए भी शायद नहीं… मुझे हमेशा लगता है कि उदासी और पीड़ा के क्षणों में इंसान के महसूस करने के धरातल पर निजता की परत बेहद अदृश्य पर गाढ़ी होती है।

मुझे सबसे मुश्किल सपनों का मरना नहीं लगता, जाना भी नहीं लगता। मुझे मुश्किल नहीं लगता किसी परिस्थिति में टूट जाना या बिखर जाना। मेरे लिए सबसे असहनीय है बिखर जाने पर खुद की ही किरीचों का चुभना….और उस चुभन को साथ रखकर सीखना ‘काँच में आईना’ देखने का हुनर।

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© Nikki Mahar । Write Side

Picture: Google

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