बिखराव
बीज ने, चीरा है खुद को
तब कहीं अंकुर बना है
मृदा ने, चीरा है खुद को
तब कहीं पौधा जना है।
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लौ ने, चीरा है हवा को,
तब कहीं उजाला हुआ है
उजाले ने, चीरा अंधेरा
तब कहीं सवेरा हुआ है ।
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व्योम ने, चीरा है दामन
तब कहीं द्युति चमचमाई
द्युति ने, चीरा है बादल
तब कहीं बरखा है आई ।
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हल ने, चीरा है धरा को
तब कहीं फसलें उगाई
कृषक ने, चीरी बिवाई
तब कहीं फसलें लहाई ।
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भ्रूण ने, चीरा है खोल
तब कहीं सृष्टि चली है
माँ ने, चीरी हैं बद्दुआयें
तब कहीं बिटिया पली है ।
दुःख ने, चीरा है हृदय को
तब कहीं निज से मिले हैं
निज ने, चीरी है उदासी
तब कहीं मन से खिले हैं ।
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ज़िंदगी दुःख दे रही है
तो समझ बेहतर करेगी
कुछ निशां तो छोड़ देगी
पर समझ उन्नत करेगी।
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चीरती है ग़र उदासी
सब्र रख, ये भी भरेगी
ज़िंदगी दुःख दे रही है
तो समझ बेहतर करेगी।
© Nikki Mahar | Writeside
तस्वीर: Google