अंतिम छोर…..
इस धरा के अंतिम छोर तलक,
मिलता है जहाँ ये श्याम फ़लक,
निर्जन है, कोई न आता है,
पसरा केवल सन्नाटा है,
बिन शब्द और आवाज़ वहाँ,
कानों में कुछ तो कहे हवा,
माथे को चूम निकलती है,
अंतस में प्रतिध्वनि पलती है,
फिर लहर बने वो दौड़ पड़ी,
होंठो पर फिर एक हँसी खिली,
तरुवर तरुवर पत्ते डोले,
मुस्काकर मानो यूँ बोले,
खिलना, उगना, मुस्काना है,
और सूख सूख झर जाना है,
आती खुशियों को छोड़ नहीं,
जाने वाले को छेड़ नहीं,
फिर बात पते की पात कहे,
वे फूल जो तुझको लगे सगे,
बारी बारी झड़ने भी लगे,
उस तरफ़ कभी मुख मोड़ा ना,
पर साथ जड़ों ने छोड़ा ना,
इतने में मधुरिम तान लिए,
होठों पर मीठा गान लिए,
कोयल मिश्री सा गाती है,
मानो मुझको समझाती है,
ग़र खोये के ग़म में सुप्त रहे,
मन कैसे फिर उन्मुक्त रहे?
जग तेरी ऊँची उड़ान देखे,
जो तू फैला वितान देखे।
© Nikki Mahar | Writeside