Poetry

इबादत

जब भी हमने भरी उड़ानें
पत्थर हमपर भी उछले थे,
जितने आए पत्थर ऊपर
उतने अपने पंख खुले थे,
नज़रे हमने रखीं सदा ही,
सीमा पार वितानों के,
फिर तो कोई निशां न छूटा,
धरती से पड़े निशानों के,

जबसे नील गगन में फैले
परों ने अपने गश्त लगाई,
कभी आँधी, कभी तूफ़ां बनकर,
अनगिन मुश्किल उनपर आई,
कभी घनेरी बदली छाई,
और अंधियारा लेकर आई,
परों ने लेकिन तनिक न सोचा,
तूफ़ानों से शर्त लगाई,
स्याम घनेरे बादल में भी,
बिजली की सी राह बनाई,
बरसे हैं हमपर पर भी अक्सर,
बूँदे, ओले तुम जैसे ही,
ये ना सोचो, सब कुछ पाया
बिन कुछ खोये, बस ऐसे ही,
नयन से जब भी आसूँ ढलके,
खुद लब पर मुस्कानें खींची,
हुई धरा इरादों की जब बंजर
कोशिश से तब तब है सींची,
टूट टूट कर बनने में ग़म,
भीतर को ही रिसता है,
लेकिन फतह का परचम तो
जग ज़ाहिर हो दिखता है,
ताज सजे शीशों की ख़ातिर
करतल भले बजाना ना,
लेकिन पैरों के छालों को,
यूँ ही मगर भुलाना ना,
दम घुटती साँसो से भी,
ग़र कोई हँसकर ज़िंदा है,
कतरे परों से भी कोई,
ग़र आज़ाद परिंदा है,
खारे अश्कों में जिनके,
मीठी मुस्कान का साया है,
ज़ख्मी पंखों से उड़कर,
आकाश जिन्होंने पाया है,
जग के ताने क्या आंकेगें,
उनकी बढ़ने की चाहत को,
नफ़रत, जुमले रोक न पाएँ,
कोशिश जहाँ ‘इबादत’ हो।

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